तारे जमीन पर
आदरणीय वाचकजन ये कहाणी सच्ची घटना पर आधारित है जो हमारे सोलापूर शहर मे घटीत हुई है. मेरे -शिलाजी- प्रधानाध्यापिका बनने के बाद मेरा कार्यालय दस बजे शुरू होता था। चूँकि मेरा क्लर्क और सेवकवर्ग का काम दस बजे शुरू होता था इस लिये, हमारे दोपहर के भोजन का समय दोपहर दो बजे था.
जिससे मैं लड़कियों के भोजन अवकाश के दौरान उनकी देखभाल कर करपाना मुझे संभव था । क्योंकि उनकी भोजन अवकाश तीन बजे था.ऊस समय मे स्वयं लड़कियो के ग्रुप में जाती और देखथी कि उन्होंने डीब्बे में क्या क्या खाना लाती हैं।जो लडकिया बिस्कुट, वेफर्स, चूरमुरे लाती उनके मातापिता को मैं पत्र भेजकर स्कूल में बुलाती और उन्हे अपंने बच्चो को पोली भाजी का डिब्बा देने के लिए आग्रह करती थी क्योकी बढ़ती उम्र में बच्चो को भरपूर सकस भोजन मिलना चाहिए।
इस प्रकार जब मैं इस तरह अलग-अलग ग्रुप्स में जाति थी.तो लड़कियाँ जिद करतीं कि हमारा एक निवाला खाओ मॅडम मेरा खाओ ऐसा आग्रह बहोत सी लडकिया करती थी, मैं वह निवाला खा लेती थी.बजाय जिसके डिब्बे में कोई बहुत साधारण सी चीज़ हो वह खा लेती थी। हमारे सोलापुर में डिब्बो मे तेल-चटनी पोली देने का एक विशेष तरीका है। यह गरीब आदमी का भोजन है.इसलिए मैं ज्यादातर समय तेल-चटनी पोळी का खाना मुझे भी अच्छा लगता.
एक दिन मेरे हॉल के सामने एक बड़ा लडकियो का ग्रुप बैठा था.पांचवे छठी कक्षा के छात्र थे और मैंने लड़कियों में से एक लडकी के डिब्बे का निवाला खाया .तभी लड़की दुसरी लडकिया चिल्लाने लगी उसके पास एक और डिब्बा है जिसमें जलेबी है, लेकिन वह उसे बाहर नहीं निकाल रही.
मैंने कहा, 'चलो, ऐसा कहां होता है ! वह लडकी बोली, 'मैडम, उससे पूछो, उसकी जांघ के नीचे ओर एक लंच बॉक्स है जो वो छूपा रही हैं.लड़की रोने लगी.इसी बीच घंटी बजी और ऑफिस से फोन आया.मैं एस.एस.सी.बोर्ड से फोन था ssc बोर्ड के पास फोन था इसलिए मैं उस काम में व्यस्त हो गई.
मध्यावधी अवकाश होने के कारण लड़कियाँ कक्षा में चली गईं। चारों तरफ सन्नाटा था और मैंने अपने ऑफिस के बाहर एक लड़की के रोने की आवाज सुनी।मैं काम में व्यस्त थी इसलीये मैंने सेवक शिवा को दरवाजे पर बुलाया।बोले 'शिव ये क्या हो रहा है, कौन रो रहा है। तब उसने कहा। एक लड़की आपसे मिलने के लिए कह रही है और बहुत रो रही है। में ने कहा ठीक है भेज दो।तभी वही लड़की अंदर आई और मेरा हाथ पकड़कर बोली 'नहीं मैडम, ऐसा नहीं है कि मैंने जानबूझ कर आपको जलेबी नहीं दी ऐसा नहीं है। मैंने कहा कोई बात नहीं.क्या तुम वह जिलेबी अकेली खाना चाहती थी? सब बच्चो को अपना टिफीन मिल बाटकर खाना चाहिए.मैंने बहुत सरलता से कहा.
उसने कहा, 'मैडम, मेरी मां एक घर पर काम करने जाती है।आज उसके घर पर शुभकार्य था.माँ वही से थाली घर ले आई जो उन्होंने मेरी माँ को दी थी और जो दूसरा डिब्बा वह मेरे लिए डेढ़ बजे लाई थी उसमें जलेबी थी। मैंने वह जिलेबी किसी को नहीं दी क्योंकि उसे चावल चिपके थे.मुझे लगा कि वो किसे के खाये हुये झुठा भोजन है.वो में आपको ओर सहेलीयों को कैसे देती और वो मेरी कमर से लिपट गयी और और रोने लगी.ये सुनकर मेरी आंखें भर आईं.और तो और, हमारा सेवक शिवाजी कांबले भी रोने लगा।उसने जल्दी से दरवाज़ा बंद किया और पर्दा डाल दिया।मैं कुर्सी से उठ गई.
ऊस लड़की को पास लेकर बोली, बेटी, इस स्थिति से निकलने का सबसे अच्छा रास्ता शिक्षा है। तुम्हे जिंदगी में बहोत. संघर्ष करना है ओर अच्छी शिक्षा प्राप्त कर अपनी माँ को सुखी करना है .सेवा सदन स्कूल ओर मेरी ओर से तूम्हारी शिक्षा के लिए जो भी मदद चाहिए, मैं व्यक्तिगत रूप से कभी भी करने को तैयार हूं।लेकिन खूब पढ़ाई करो और कुछ बनने के लिए दृढ़ संकल्पित रहो।बाद में मैंने उसे समझा-बुझाकर भेज दिया।
मुझे एहसास हुआ कि उसे पता था कि वो किसी की उठाई हुई झुटी थाली का खाना खा रहे हैं| इतनी कम उम्र के बच्चे के लिए यह जानना बहुत बुरा था।लेकिन परीस्थिति इलाज से परे थी.ये बात मेरे मन में कहीं गहराई तक बैठ गयी.उसके बाद सोलापुर आकाशवाणी पर 'गानी मनातली' कार्यक्रम में कई महिलाओं का साक्षात्कार लिया गया।यह एक ऐसा कार्यक्रम था जहां आपको एक गाना बजाना था और आपको यह क्यों पसंद आया इसके पीछे की कहानी बतानी थी।रात 10 बजे प्रसारित होने वाले उन कार्यक्रमों में मैंने पांच-पांच गाने बजाए और बताया कि मुझे वे गाने क्यों पसंद आए.इसमें मैंने यह घटना बताई और फिर 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरे मुट्ठी में क्या है...' गाना बजाने की रिक्वेस्ट की।उस घटना का लोगों पर इतना असर हुआ कि रात साढ़े ग्यारह बजे तक मुझे लोगों के फोन आ रहे थे - लोग कह रहे थे, 'क्या दिल दहला देने वाली घटना है, हम रो पड़े...'।कार्यक्रम बहुत अच्छा था.
सुश्री शीला पतकी की, सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापिका, सेवासदन प्रशाला, सोलापुर यदि इसे पढ़ते समय आपकी आंखों में आंसू आ जाएं तो एक लाइक करें 👍☝️👌
इस तरह... अगर आपको अपने बचपन की स्थिति याद हो तो भी यह बहुत ज्यादा है .परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं लेकिन बचपन जीवन के अंत तक भी याद रहता है .